भारत में मृदा संरक्षण की बेहद जरूरत महसूस की जा रही है। विकास तेजी से हो रहा है। कल-कारखाने से लेकर स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र सभी खुल रहे हैं। खेती योग्य जमीन का रकबा लगातार कम हो रहा है तो दूसरी तरफ विभिन्न कारणों से मिट्टी का क्षरण भी हो रहा है।
वैज्ञानिकोें की अोर से दी गई विभिन्न सिफारिशों में मृदा संरक्षण पर जोर दिया गया है। यही वजह है कि केंद्र सरकार की अोर से कृषि विभाग के जरिए किसानों को मृदा संरक्षण के प्रति जागरूक किया जा रहा है। मृदा संरक्षण संबंधी अन्य अभियान भी चलाए जा रहे हैं। आज मृदा संरक्षण के प्रति तत्पर रहने की जिम्मेदारी हर किसान की है तभी ये अभियान सफल हो सकते हैं। कृषि वैज्ञानिक डा. एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में प्रतिवर्ष क्षरण के कारण करीब 25 लाख टन नाइट्रोजन, 33 लाख टन फास्फेट और 25 लाख टन पोटाश की क्षति होती है। यदि इस प्रभाव को बचा लिया जाए तो हर साल करीब छह हजार मिलियन टन मिट्टी की ऊपरी परत बचेगी और इससे हर साल करीब 5.53 मिलियन टन नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा भी बचेगी।
आंकड़े बताते हैं कि अनुकूल परिस्थितियों में मिट्टी की एक इंच मोटी परत जमने में करीब आठ सौ साल लगते हैं, जबकि एक इंच मिट्टी को उड़ाने में आंधी और पानी को चंद पल लगते हैं। एक हेक्टेयर भूमि की ऊपरी परत में नाइट्रोजन की मात्रा कम होने से किसान को औसतन तीन से पांच सौ रुपये खर्च करने पड़ते हैं।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रति वर्ष 27 अरब टन मिट्टी का क्षरण जलभराव, क्षारीकरण के कारण हो रहा है। मिट्टी की यह मात्रा एक करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि के बराबर है।
खेती योग्य जमीन के बीच काफी भू- भाग ऐसा है, जो लवणीय एवं क्षारीय है। इसका कुल क्षेत्रफल करीब सात मिलियन हेक्टेयर बताया जाता है। मिट्टी में सल्फेट एवं क्लोराइड के घुलनशील लवणों की अधिकता के कारण मिट्टी की उर्वरता खत्म हो जाती है।
कृषि में पानी के अधिक प्रयोग एवं जलजमाव के कारण मिट्टी उपजाऊ होने के बजाय लवणीय मिट्टी में परिवर्तित हो जाती है। वास्तव में मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों को बचाना बेहद जरूरी है क्योंकि मृदा की उर्वराशक्ति के क्षीण होने का नुकसान किसी न किसी रूप में समूचे राष्ट्र को चुकाना पड़ता है।
यदि फसलों की वृद्धि के लिए आवश्यक नाइट्रोजन, फास्फोरस, मैग्नीशियम, कैल्शियम, गंधक, पोटाश सहित अन्य तत्वों को बचाकर उनका समुचित उपयोग पौधे को ताकतवर बनाने में किया जाए तो एक तरफ हमारी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा और दूसरी तरफ मृदा संरक्षण की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण पहल होगी।
हालांकि केंद्र सरकार की अोर से भूमि सुधार कार्यक्रम, बंजर भूमि सुधार कार्यक्रम सहित कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। फिर भी आज दुनिया के सामने मरुस्थलीयकरण को रोकना भी एक बड़ी चुनौती है। हम मिट्टी की प्रवृत्ति पर गौर करें तो मिट्टी कुछ सेंटीमीटर गहरी होती है जबकि औसत रूप में कृषि योग्य उपजाऊ मिट्टी की गहराई 30 सेंटीमीटर तक मानी जाती है।
मृदा की चार परतें होती हैं। पहली अथवा सबसे ऊपरी सतह छोटे-छोटे मिट्टी के कणों और गले हुए पौधों और जीवों के अवशेष से बनी होती है। यह परत फसलों की पैदावार के लिए महत्वपूर्ण होती है। दूसरी परत महीन कणों जैसे चिकनी मिट्टी की होती है और तीसरी परत मूल विखंडित चट्टानी सामग्री और मिट्टी का मिश्रण होती है तथा चौथी परत में अविखंडित सख्त चट्टानें होती हैं।
लवणीयता व क्षारीयता कम करने की जरूरत
लवणीय मिट्टी में सोडियम और पोटैशियम कार्बोनेट की मात्रा अधिक होने के कारण पौधों की वृद्धि नहीं हो पाती है। ऐसे में पौधे या तो अविकसित ही रहते हैं अथवा वे सूख कर नष्ट हो जाते हैं। इसी तरह क्षारीय मिट्टी में पानी भरने पर काफी दिनों तक रूका रहता है और जब पानी सूखता है तो मिट्टी एकदम सख्त हो जाती है और बीच-बीच में दरारें दिखाई पड़ती हैं।
ऐसी मिट्टी में बोया जाने वाला बीज अंकुरित बहुत मुश्किल से होता है। क्षारीय भूमि को भी लवणीय भूमि की तरह निक्षालन क्रिया से शोधित किया जा सकता है। इसके अलावा जिप्सम का प्रयोग करके हानिकारक सोडियम तत्वों को नष्ट किया जा सकता है। इसके अलावा गोबर खाद, हरी खाद, वर्मी कंपोस्ट, नीलहरित शैवाल आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग करने के कारण कैल्शियम निचली सतह पर चला जाता है।
ऐसे में सोडियम भूमि की क्षारीय प्रकृति को बढ़ाकर मिट्टी की स्थिति को प्रभावित करता है। ऐसे में किसानोें को अनुमान के अनुरूप उत्पादन नहीं मिल पाता है।
मृदा संरक्षण के तहत उठाए जाने वाले अन्य प्रमुख उपाय हरी एवं जैविक खाद का प्रयोग- खेत में हरी खाद का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाए। परंपरागत रूप में प्रचलित सनई, ठैंचा, मूंग, लोबिया, ग्वार आदि को खेत में बोया जाए और खड़ी फसल के बीच खेत की जुताई की जाए। इससे खेत में विभिन्न प्रकार के जैविक तत्वों का समावेश होता है।
मिट्टी की ताकत बढ़ती है और उत्पादन भी अधिक मिलता है। क्योंकि इन फसलों की जड़, डंठल एवं पत्तियां सभी मिट्टी के संपर्क में आते ही पूरी तरह से सड़ जाते हैं और मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के साथ ही जिंक, आयरन, कॉपर, मैग्नीशियम आदि भी प्रदान करते हैं।
इस प्रणाली का प्रयोग सिंचित क्षेत्र में अधिक प्रचलित है। हालांकि हरी खाद के प्रयोग का चलन विभिन्न राज्यों में कम होता जा रहा है। यही वजह है कि अब एक बार फिर सरकारी स्तर पर किसानों को हरी खाद के प्रति जागरूक किया जा रहा है।
जैव उर्वरकों का प्रयोग करने से पौधों के लिए आवश्यक सभी प्रमुख एवं सूक्ष्म पोषक तत्व मिल जाते हैं। मिट्टी में मौजूद लाभकारी जीवाणुओं की बढ़त होती है। मिट्टी में पड़ने वाली रासायनिक खाद की घुलनशीलता बढ़ती है। भारत में मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, झारखंड में हरी खाद का प्रचलन है। इसी तरह मृदा संरक्षण की दिशा में जैविक खेती सबसे महत्वपूर्ण है। किसान जैविक खेती के जरिए जहां गुणवत्तापरक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं वहीं मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ा सकते हैं।
जैव उर्वरकों का प्रयोग करने से पौधों के लिए आवश्यक सभी प्रमुख एवं सूक्ष्म पोषक तत्व मिल जाते हैं। मिट्टी में मौजूद लाभकारी जीवाणुओं की बढ़त होती है। मिट्टी में पड़ने वाली रासायनिक खाद की घुलनशीलता बढ़ती है।
जैविक खेती की महत्ता को देखते हुए केंद्र एवं राज्य सरकारों की ओर से इसे विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए बढ़ावा दिया जा रहा है। इतना ही नहीं अब तो जैविक उत्पादन का मूल्य भी अन्य उत्पादों की अपेक्षा अधिक मिल रहा है। ऐसे में किसान जैविक खादों का प्रयोग कर दोहरा फायदा प्राप्त कर सकते हैं।
जैविक खेती में सक्रिय किसानों को जैविक खाद तैयार करने के लिए विभिन्न योजनाओं के जरिए अनुदान की भी व्यवस्था की गई है। जैव उर्वरकों का प्रयोग करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस वक्त जैव उर्वरक का प्रयोग हो रहा है, उस वक्त मिट्टी को कितनी जरूरत है। मुख्य रूप से राइजोबिनयम, एजोस्पीरिलम, नीलहरित शैवाल आदि का प्रयोग किया जा सकता है।
वर्मी कम्पोस्ट- यह प्राचीनकाल से ही किसानों का सबसे हितकर प्रयोग रहा है। क्योंकि यह पूरी तरह से केंचुए पर आधारित है। केंचुए को किसानों का मित्र कहा जाता है। लेकिन अब खेतों में केंचुआ पैदा करने के वैज्ञानिक तरीके भी उपलब्ध हैं।
ये केंचुए मिट्टी में मौजूद घासफूस और अन्य खरपतवार को खाकर उन्हें खाद तो बनाते ही हैं, साथ ही मिट्टी को मुलायम और उपजाऊ बना देते हैं। यही वजह है कि अब केंचुए तैयार करने के लिए सरकारी स्तर पर भी उपक्रम स्थापित किए जा रहे हैं। कृषि वैज्ञानिक गांव-गांव जाकर किसानों को वर्मी कंपोस्ट के प्रति जागरूक कर रहे हैं।
फसल चक्र- खेत में उचित फसल चक्र अपनाया जाए। क्योंकि कई बार खेत में जिस खाद का प्रयोग किया जाता है वह संबंधित फसल के तहत पौधा ग्रहण नहीं कर पाता है। किसी एक खेत में अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग फसलों को हेर-फेर करके उगाया जाए तो मृदा की उर्वरता बरकरार रहती है।
इससे किसी एक प्रकार के खरपतवार, बीमारी और कीड़ों को बढ़ावा भी नहीं मिलता है।
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