Saturday, August 1, 2015

फेरोमन ट्रैप

फेरोमोन ट्रैप का इस्तेमाल मतलब कीटनाशकों की छुट्टी
(साभार गॉव कनेक्शन)

खरीफ की फसलों में यह समय तरह-तरह के कीट लगने का है। किसान फेरोमोन ट्रैप विधि से ऐसी खरीफ फसलों में कीटों का नियंत्रण कर सकते हैं। यह सलाह तीन सितंबर को उत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद में हुई फसल सतर्कता समूह की बैठक में कृषि वैज्ञानिकों के समूह द्वारा जारी की गई।

फेरोमोन मादा कीटों से मिलती-जुलती एक गंध होती है जो नर कीटों को अपनी ओर आकर्षित करती है। इस गंध को एक छोटी सी कैप्सूल के आकार की संरचना में भरकर उसे कीट पकडऩे के लिए ट्रैप के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इस कैप्सूल आकार की संरचना को ल्योर भी कहते हैं। यह ट्रैप बनाने के लिए प्लास्टिक के एक डिब्बे में फेरोमोन ल्योर लगाकर टांग देते हैं। इससे आस-पास मौजूद नर कीट डिब्बे की ओर आकर्षित होते हैं। ये डिब्बे फंदे की तरह बने होते हैं जिसमें कीट अंदर जाने के बाद बाहर नहीं आ पाते हैं। इससे कीटों को पहचानने में भी मदद मिलती है क्योंकि सारे कीट एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं। इससे यह पता चल जाता है कि खेत में कौन-कौन से कीट लगे हैं।

क्या है फेरोमोन
यह एक प्रकार की विशेष गंध होती है, जो मादा पतिंगा छोड़ती हैं। जो कि नर पतंगों को आकर्षित करता है। विभिन्न कीटों द्वारा विभिन्न प्रकार के फेरोमोन छोड़े जाते हैं।

मास ट्रैपिंग
कई सारे फेरोमोने ट्रैप का उपयोग कीटों को अधिक से अधिक समूह में पकडऩे के लिए भी किया जाता है। जिससे नर कीट ट्रैप हो जाएं और मादा कीट अंडा देने से वंचित रह जाएं।

कैसे उपयोग करें
खेतों में इस ट्रैप को सहारा देने के लिए एक डंडा गाडऩा होता हैं। इस डंडे के सहारे छल्ले को बांधकर इसे लटका दिया जाता है। ऊपर के ढक्कन में बने स्थान पर ल्योर को फंसा दिया जाता है तथा बाद में छल्लों में बने पैरों पर इसे कस दिया जाता हैं। कीट एकत्र करने की थैली को छल्ले में विधिवत लगाकर इसके निचले सिरे को डंडे के सहारे एक छोर पर बांध दिया जाता है। इस ट्रैप की ऊंचाई इस प्रकार से रखनी चाहिए की ट्रैप का उपरी भाग फसल की ऊंचाई से 1 से 2 फुट ऊपर रहे।

ट्रैप का निर्धारण व सघनता
प्रत्येक कीट के नर पतिंगों को बड़े पैमाने पर एकत्र करने के लिए सामान्यत: दो से चार ट्रैप प्रति एकड़ प्रर्याप्त है। एक ट्रैप से दूसरे ट्रैप की दूरी 30-40 मीटर रखनी चाहिए। इस ट्रैप को खेत में लगा देने के उपरांत इनमे फंसे पतिंगों की नियमित जांच की जानी चाहिए और पाए गए पतिंगों का आंकड़ा रखना चाहिए जिससे उनकी गतिविधियों पर ध्यान रखा जा सके। बड़े पैमाने पर कीड़ों को पकड़कर मारने के उदेश्य से जब इसका उपयोग किया जाए तो थैली में एकत्र कीड़ों को नियमित रूप से नष्ट कर थैली को बराबर खाली करते हैं जिससे उसमें नए कीड़ों को प्रवेश पाने का स्थान बना रहे। इस नई तकनीक का लाभ यह है कि किसान अपने खेतों पर कीड़ों की संख्या का आंकलन कर कीटनाशकों के उपयोग की रणनीति निर्धारित कर अनावश्यक रासायनिक उपचार से बच सकते हैं।

फेरोमोन ट्रैप के लाभ

इससे रसायनों के छिड़काव और उसमें होने वाले खर्चे से किसान को सहूलियत मिलेगी।
फेरोमोन एवं ल्योर विषैले नहीं हैं इसलिए इनसे किसानों और वातावरण को कोई खतरा नहीं है।
इसके प्रयोग से कीड़ों का आकलन करके उपचार में असानी रहती है।
इस तरीके से कीड़े अपनी संख्या नहीं बढ़ा पाते हैं और उत्पादन को हानि नहीं पहुंचती।
उपकरण केवल एक ही बार खरीदना होता है इसमें लगने वाला फेरोमोन गंध वाला ल्योर ही केवल बार-बार बदलना पड़ता है।

सावधानियां

फेरोमोन ल्योर को एक माह में एक बार अवश्य बदल देना चाहिए।
ठन्डे एवं सूखे स्थान पर भंडारित करें।
एक बार प्रयोग किये गए ल्योर को नष्ट कर दें।
बात को सुनिश्चित करते रहें कि कीट एकत्र करने की थैली का मुंह बराबर
खुला रहे और खाली स्थान बना रहे जिसमें अधिकाधिक कीड़े एकत्र कर नष्ट किए जा सकें।

फसल व कीटों के साथ प्रयोग किए जाने वाले ल्योर के प्रकार
कीट ल्योर का नाम फसल

अमेरिकन सुंडी लट हेली ल्योर दलहनी फसलों के लिए
धब्बेदार सुंडी इर्विट ल्योर भिन्डी, तरोई, कद्दू वर्गीय
डायमंड बेक मॉथ दीबीएम ल्योर गोभी कूल के फसल के लिए
बैंगन तना एवं फली छेदक लयूसिन ल्योर बैगन एवं मिर्च के लिए
अर्ली शूट बोरर इएसबी ल्योर धान और गन्ना के लिए
गन्ना तना छेदक चाइलो ल्योर गन्ने के लिए
गन्ना टीप बोरर स्किरपो ल्योर गन्ने के लिए

Wednesday, July 22, 2015

इल्ली, माहू, मिलीबग आदि कीटों हेतु कीटनाशक

किट नियंत्रण हेतु आप सभी के लिए कुछ अन्य सरल उपाय।

मिलिबग
बोगनबेल के पत्ते, अरडूसी के पत्ते, नीम के पत्ते, तंबाकू का पाउडर , नागफनी के टुकड़े - इन सभी वनस्पति को 1 - 1 किलो के प्रमाण में लेकर इनके छोटे छोटे टुकड़े करें। इन्हे 10 लीटर पानी में लेकर उबालें। जब ये ठंडा हो जाएँ तब 150 मिली घोल + 2 चमची डिटरजंट पाउडर / 15 लीटर पानी के हिसाब से 5 दिन के अंतर पर दो बार छिड़के।

10 लीटर पानीमें 50 से 75 मिली नींबू का रस मिलाकर छिड़काव करें। खट्टापन किट की शारीरिक क्रिया में अवरोधक होता है।

मिलिबग का प्रकोप दिखे तो 10 लीटर पानीमें 100 ग्राम नींबूका रस + 10 ग्राम खानेका चूना + 250 ग्राम गुड का घोल बनाकर छिड़काव करें।

भूरा माहु
एक एकड़ में 10 किलोसनई को चक्कीमें पिसाकर आटे को खेतमें फसल पर छिड़काव करें।

1 किलो तंबाकू और कपड़े धोने के साबुन को 7 से 8 लीटर पानीमें उबाले। घोल को उबालने के बाद कपड़े से छान ले और खेतमें छिड़के।

फसलमें रात को मशाल लेके घूमने से फूंदक व किट आग से आकर्षित होकर नष्ट होते है।

एक एकड़ जमीन में 35 किलो नीम खाद और 18 किलो तंबाकू का पाउडर छिड़के।

पत्ते खानेवाली इल्ली
खेत में बाजरे की रोटी के टुकड़े आदि खेत मे फैला दें। इनको खाने पक्षी आएंगे जो इल्ली भी खा जाएँगे।

नीमके 10 किलो पत्ते और सीताफली के 10 किलो पत्ते को 100 लीटर पानीकी टंकी में पाँच दिन तक रख दे। छठे दिन पानी को हिलाकर के कपड़े से छान लें। सड़ा हुवा ये पानी एक पंप में (15 लीटर) डेढ़ लीटर डालकर 10 दिन के अंतर पर 2 - 3 बार छिड़काव करें।

इल्ली के नियंत्रण हेतु 15 लीटर पानीमें 300 मिली नागफनी का दूध मिश्रित करके छिड़काव करें।

इल्ली नियंत्रण हेतु खट्टी इमली के एक किलो पत्ते और महुड़ी के दो किलो छिलके लेकर दोनों मिश्रित करके दोनों की बारीक फाँकी बनाएँ। इस मिश्रण को 15 लीटर पानीमें मिलाकर 8 से 10 दिन के अंतर पे छिड़के।

Tuesday, July 21, 2015

एक एकड़ के लिये प्राकृतिक कीटनाशक

एक एकड़ खेत के लिए अगर कीटनाशक तैयार करना है तो ः-
1) 20 लीटर किसी भी देसी गौमाता या देसी बैले का मूत्र चाहिए।
2) 20 लीटर मूत्र में लगभग ढार्इ किलो ( आधा किलो कम या ज्यादा हो सकता है ) नीम की पत्ती को पीसकर उसकी चटनी मिलाइए, 20 लीटर मूत्र में। नीम के पत्ते से भी अच्छा होता है नीम की निम्बोली की चटनी ।
3) इसी तरह से एक दूसरा पत्ता होता है धतूरे का पत्ता। लगभग ढार्इ किलो धतूरे के पत्ते की चटनी मिलाइए उसमें।
4) एक पेड़ होता है जिसको आक या आँकड़ा कहते हैं, अर्कमदार कहते हैं आयुर्वेद में। इसके भी पत्ते लगभग ढार्इ किलो लेकर इसकी चटनी बनाकर मिलाए।
5) जिसको बेलपत्री कहते हैं, जिसके पत्र आप शंकर भगवान के उपर चढ़ाते हैं । बेलपत्री या विल्वपत्रा के पते की ढार्इ किलो की चटनी मिलाए उसमें।
6) फिर सीताफल या शरीफा के ढार्इ किलो पतो की चटनी मिलाए उसमें।
7) आधा किलो से 750 ग्राम तक तम्बाकू का पाऊडर और डाल देना।
इसमें 1 किलो लाल मिर्च का पाऊडर भी डाल दें ।
9) इसमे बेशर्म के पत्ते भी ढार्इ किलो डाल दें ।
तो ये पांच-छह तरह के पेड़ों के पत्ते आप ले लो ढार्इ- ढार्इ किलो। इनको पीसकर 20 लीटर देसी गौमाता या देसी बैले मूत्र में डालकर उबालना हैं, और इसमें उबालते समय आधा किलो से 750 ग्राम तक तम्बाकू का पाऊडर और डाल देना। ये डालकर उबाल लेना हैं उबालकर इसको ठंडा कर लेना है और ठंडा करके छानकर आप इसको बोतलों में भर ले रख लीजिए। ये कभी भी खराब नहीं होता। ये कीटनाशक तैयार हो गया। अब इसको डालना कैसे है? जितना कीटनाशक लेंगे उसका 20 गुना पानी मिलाएं। अगर एक लीटर कीटनाशक लिया तो 20 लीटर पानी, 10 लीटर कीटनाशक लिया तो 200 लीटर पानी, जितना कीटनाशक आपका तैयार हो, उसका अंदाजा लगा लीजिए आप, उसका 20 गुना पानी मिला दीजिए। पानी मिलकर उसको आप खेत में छिड़क सकते हैं किसी भी फसल पर। इसको छिड़कने का परिणाम ये है कि दो से तीन दिन के अंदर जिस फसल पर आपने स्प्रै किया, उस पर कीट और जंतु आपको दिखार्इ नहीं देगें, कीड़े और जंतु सब पूरी तरह से दो-तीन दिन में ही खत्म हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। इतना प्रभावशाली ये कीटनाशक बनकर तैयार होता है। ये बड़ी-बड़ी विदेशी कम्पनियों के कीटनाशक से सैकड़ों गुणा ज्यादा ताकतवर है और एकदम फोकट का है, बनाने में कोर्इ खर्चा नहीं । देसी गौमाता या देसी बैले का मूत्र मुफ्त में मिल जाता है, नीम के पत्ते, निम्बोली, आक के पत्ते, आडू के पत्ते- सब तरह के पत्ते मुफ्त में हर गाँव में उपलब्ध हैं। तो ये आप कीटनाशक के रूप में, जंतुनाशक के रूप में आप इस्तेमाल करें ।

दीमक प्रबंधन

दीमक प्रबंधन के उपाय

किसान फसलें उगाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं लेकिन तमाम तरह के कीट , फसलों को चट कर जाते हैं। वैज्ञानिक विधि अपनाकर कीटनाशकों के बिना ही इनका नियंत्रण किया जा सकता है। इससे कीटनाशकों पर उनका खर्चघटेगा। खेत की मिट्टी से ज्यादा पैदावार पाने के लिए किसानों को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। फसलें उगाने में उन्हें काफी पैसे भी खर्च करना पड़ता है। लेकिन मिटट्ी में पनपने वाले कीड़े-मकोड़े जैसे दीमक आदि फसलों को चट कर जाते हैं। इन कीटों से फसलों को सुरक्षित रखने के लिए भी कीटनाशकों पर किसानों को काफी खर्च करना पड़ता है। फसलें और कीट नियंत्रण के लिए वैज्ञनिक विधि अपनाकर किसान कीट नियंत्रण ज्यादा प्रभावी तरीके से कर सकते हैं।

कीटों का फसलों पर असर :

दीमक पोलीफेगस कीट होता है ,यह सभी फसलो को बर्बाद करता है | भारत में फसलों को करीबन 45 % से ज्यादा नुकसान दीमक से होता है। वैज्ञनिकों के अनुसार दीमक कई प्रकार की होती हैं। दीमक भूमि के अंदर अंकुरित पौधों को चट कर जाती हैं। कीट जमीन में सुरंग बनाकर पौधों की जड़ों को खाते हैं। प्रकोप अधिक होने पर ये तने को भी खाते हैं। इस कीट का वयस्क मोटा होता है, जो धूसर भूर रंग का होता है और इसकी लंबाई करीब भ्.भ्म् मिलीमीटर होती है। इस कीट की सूड़ियां मिटट्ी की बनी दरारों अथवा गिरी हुई पत्तियों के नीचे छिपी रहती हैं। रात के समय निकलकर पौधो की पत्तियों या मुलायम तनों को काटकर गिरा देती है। आलू के अलावा टमाटर, मिर्च, बैंगन, फूल गोभी, पत्ता गोभी, सरसों, राई, मूली,गेहू आदि फसलो को सबसे ज्यादा नुकसान होता है। इस कीट के नियंत्रण के लिए समेकित कीट प्रबंधन को अपनाना जरूरी है।

दीमक की रोकथाम :

दीमक से बचाव के लिए खेत में कभी भी कच्ची गोबर नहीं डालनी चाहिए। कच्ची गोबर दीमक का प्रिय भोजन होता है | इन कीटों के नियंत्रण के लिए

बीजों को बिवेरिया बेसियाना फफुद नासक से उपचारित किया जाना चाहिए। एक किलो बीजों को 20 ग्राम बिवेरिया बेसियाना फफुद नासक से उपचारित करके बोनी चाहिए
2 किग्रा सुखी नीम की बीज को कूटकर बुआइ से पहले 1 एकड़ खेत में डालना चिहिए
नीम केक 30 किग्रा /एकड़ में बुआइ से पहले खेत में डालना चिहिए
1 किग्रा बिवेरिया बेसियाना फफुद नासक और 25 किग्रा गोबर की सड़ी खाद में मिलाकर बुआइ से पहले खेत में डालना चिहिए
1 किग्रा/एकड़ बिवेरिया बेसियाना फफुद नासक को आवश्यकतानुसार पानी में घोलकर मटके में भरकर ,निचले हिस्से में छिद्र करके सिचाई के समय देना चाहिए

दीमक नियंत्रण के देशी उपाय/ किसानो द्वारा प्रयोग के आधार पर /प्रयोग का परिणाम :

मक्का के भुट्टे से दाना निकलने के बाद, जो गिण्डीयॉ बचती है, उन्हे एक मिट्टी के घड़े में इक्टठा करके घड़े को खेत में इस प्रकार गाढ़े कि घड़े का मुॅह जमीन से कुछ बाहर निकला हो। घड़े के ऊपर कपड़ा बांध दे तथा उसमें पानी भर दें। कुछ दिनाेंं में ही आप देखेगें कि घड़े में दीमक भर गई है। इसके उपरांत घड़े को बाहर निकालकर गरम कर लें ताकि दीमक समाप्त हो जावे। इस प्रकार के घड़े को खेत में 100-100 मीटर की दूरी पर गड़ाएॅ तथा करीब 5 बार गिण्डीयॉ बदलकर यह क्रिया दोहराएं। खेत में दीमक समाप्त हो जावेगी।
सुपारी के आकार की हींग एक कपड़े में लपेटकर तथा पत्थर में बांधकर खेत की ओर बहने वाली पानी की नाली में रख दें। उससे दीमक तथा उगरा रोग नष्ट हो जावेगा।
एक किग्रा निरमा सर्फ़ को 50 किग्रा बीज में मिलाकर बुआइ करने से दीमक से बचाव होता है
जला हुआ मोबिल तेल को सिचाई से समय खेत की ओर बहने वाली पानी की नाली से देने से दीमक से बचाव होता है
एक मिटटी के घड़े में 2 किग्रा कच्ची गोबर + १०० ग्राम गुड को 3 लीटर पानी में घोलकर ,जहा दीमक का समाश्या हो वहां पर इस प्रकार गाढ़े कि घड़े का मुॅह जमीन से कुछ बाहर निकला हो। घड़े के ऊपर कपड़ा बांध दे तथा उसमें पानी भर दें। कुछ दिनाेंं में ही आप देखेगें कि घड़े में दीमक भर गई है, इसके उपरांत घड़े को बाहर निकालकर गरम कर लें ताकि दीमक समाप्त हो जावे। इस प्रकार के घड़े को खेत में 100-100 मीटर की दूरी पर गड़ाएॅ तथा करीब 5 बार गिण्डीयॉ बदलकर यह क्रिया दोहराएं। खेत में दीमक समाप्त हो जावेगी।
जैविक पध्दति द्वारा जैविक कीट एवं व्याधि नियंत्रण के कृषकों के अनुभव :-

जैविक कीट एवं व्याधि नियंजक के नुस्खे विभिन्न कृषकों के अनुभव के आधार पर तैयार कर प्रयोग किये गये हैं, जो कि इस प्रकार हैं-

गौ-मूत्
गौमूत्र, कांच की शीशी में भरकर धूप में रख सकते हैं। जितना पुराना गौमूत्र होगा उतना अधिक असरकारी होगा । 12-15 मि.मी. गौमूत्र प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रेयर पंप से फसलों में बुआई के 15 दिन बाद, प्रत्येक 10 दिवस में छिड़काव करने से फसलों में रोग एवं कीड़ों में प्रतिरोधी क्षमता विकसित होती है जिससे प्रकोप की संभावना कम रहती है।

नीम के उत्पाद
नीम भारतीय मूल का पौघा है, जिसे समूल ही वैद्य के रूप में मान्यता प्राप्त है। इससे मनुष्य के लिए उपयोगी औषधियां तैयार की जाती हैं तथा इसके उत्पाद फसल संरक्षण के लिये अत्यन्त उपयोगी हैं।

नीम पत्ती का घोल
नीम की 10-12 किलो पत्तियॉ, 200 लीटर पानी में 4 दिन तक भिगोंयें। पानी हरा पीला होने पर इसे छानकर, एक एकड़ की फसल पर छिड़काव करने से इल्ली की रोकथाम होती है। इस औषधि की तीव्रता को बढ़ाने हेतु बेसरम, धतूरा, तम्बाकू आदि के पत्तों को मिलाकर काड़ा बनाने से औषधि की तीव्रता बढ़ जाती है और यह दवा कई प्रकार के कीड़ों को नष्ट करने में यह दवा उपयोगी सिध्द है।

नीम की निबोली नीम की निबोली 2 किलो लेकर महीन पीस लें इसमें 2 लीटर ताजा गौ मूत्र मिला लें। इसमें 10 किलो छांछ मिलाकर 4 दिन रखें और 200 लीटर पानी मिलाकर खेतों में फसल पर छिड़काव करें।

नीम की खली
जमीन में दीमक तथा व्हाइट ग्रब एवं अन्य कीटों की इल्लियॉ तथा प्यूपा को नष्ट करने तथा भूमि जनित रोग विल्ट आदि के रोकथाम के लिये किया जा सकता है। 6-8 क्विंटल प्रति एकड़ की दर से अंतिम बखरनी करते समय कूटकर बारीक खेम में मिलावें।

आइपोमिया (बेशरम) पत्तीघोल
आइपोमिया की 10-12 किलो पत्तियॉ, 200 लीटर पानी में 4 दिन तक भिगोंये। पत्तियों का अर्क उतरने पर इसे छानकर एक एकड़ की फसल पर छिड़काव करें इससे कीटों का नियंत्रण होता है।

मटठा
मट्ठा, छाछ, मही आदि नाम से जाना जाने वाला तत्व मनुष्य को अनेक प्रकार से गुणकारी है और इसका उपयोग फसलों मे कीट व्याधि के उपचार के लिये लाभप्रद हैं। मिर्ची, टमाटर आदि जिन फसलों में चुर्रामुर्रा या कुकड़ा रोग आता है, उसके रोकथाम हेतु एक मटके में छाछ डाकर उसका मुॅह पोलीथिन से बांध दे एवं 30-45 दिन तक उसे मिट्टी में गाड़ दें। इसके पश्चात् छिड़काव करने से कीट एवं रोगों से बचत होती । 100-150 मि.ली. छाछ 15 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करने से कीट-व्याधि का नियंत्रण होता है। यह उपचार सस्ता, सुलभ, लाभकारी होने से कृषकों मे लोकप्रिय है।

मिर्च/लहसुन
आधा किलो हरी मिर्च, आधा किलो लहसुन पीसकर चटनी बनाकर पानी में घोल बनायें इसे छानकर 100 लीटर पानी में घोलकर, फसल पर छिड़काव करें। 100 ग्राम साबुन पावडर भी मिलावे। जिससे पौधों पर घोल चिपक सके। इसके छिड़काव करने से कीटों का नियंत्रण होता है।

लकड़ी की राख
1 किलो राख में 10 मि.ली. मिट्टी का तेल डालकर पाउडर का छिड़काव 25 किलो प्रति हेक्टर की दर से करने पर एफिड्स एवं पंपकिन बीटल का नियंत्रण हो जाता है ।

ट्राईकोडर्मा

ट्राईकोडर्मा एक ऐसा जैविक फफूंद नाशक है जो पौधों में मृदा एवं बीज जनित बीमारियों को नियंत्रित करता है। बीजोपचार में 5-6 ग्राम प्रति किलोगाम बीज की दर से उपयोग किया जाता है। मृदा उपचार में 1 किलोग्राम ट्राईकोडर्मा को 25 किलोग्राम अच्छी सड़ी हुई खाद में मिलाकर अंतिम बखरनी के समय प्रयोग करें।

कटिंग व जड़ उपचार- 200 ग्राम ट्राईकोडर्मा को 15-20 लीटर पानी में मिलाये और इस घोल में 10 मिनिट तक रोपण करने वाले पौधों की जड़ों एवं कटिंग को उपचारित करें। 3 ग्राम ट्राईकोडर्मा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10-15 दिन के अंतर पर खड़ी फसल पर 3-4 बार छिड़काव करने से वायुजनित रोग का नियंत्रण होता है।

दीमक नियंत्रण

मक्का के भुट्टे से दाना निकलने के बाद, जो गिण्डीयॉ बचती है, उन्हे एक मिट्टी के घड़े में इक्टठा करके घड़े को खेत में इस प्रकार गाढ़े कि घड़े का मुॅह जमीन से कुछ बाहर निकला हो। घड़े के ऊपर कपड़ा बांध दे तथा उसमें पानी भर दें। कुछ दिनाेंं में ही आप देखेगें कि घड़े में दीमक भर गई है। इसके उपरांत घड़े को बाहर निकालकर गरम कर लें ताकि दीमक समाप्त हो जावे। इस प्रकार के घड़े को खेत में 100-100 मीटर की दूरी पर गड़ाएॅ तथा करीब 5 बार गिण्डीयॉ बदलकर यह क्रिया दोहराएं। खेत में दीमक समाप्त हो जावेगी।
सुपारी के आकार की हींग एक कपड़े में लपेटकर तथा पत्थर में बांधकर खेत की ओर बहने वाली पानी की नाली में रख दें। उससे दीमक तथा उगरा रोग नष्ट हो जावेगा।

ध्यान दें ---
यदि विवेरिया का प्रयोग किया है तो नीम का प्रयोग न करें नीम प्राकृतिक फफूंदी नाशक है तथा विवेरिया 1 फफूंदी ही है ट्राइकोडर्मा की तरह।

भूमि संरक्षण

भूमि संरक्षण

पर्वतीय क्षेत्र मे भूक्षरण मुख्यतः वर्षा के जल के बहाव के कारण होता है। अधिक ढालू भूमि से भूक्षरण भी अधिक होता है। भूक्षरण का मुख्य कारण वर्षा के जल के बहाव की गति अधिक होना है। जैसे -जैसे ढाल की मात्रा तथा ढालदार मात्रा बढे़गी, जल बहाव की गति बढेगी, जिसके कारण भूक्षरण बढे़गा। अतः खेती योग्य या अन्य भूमि मे भूमि संरक्षण की विधियाँ अपनाने के लिये मुख्य सिद्धान्त है कि भूमि का ढलान तथा ढालदार लम्बाई को कम रखा जाये ताकि वर्षा जल की गति नियंत्रित रहे। सीढीदार खेतों की उचित बनावट तथा अन्य भूमि संरक्षण की विधियाँ इसी आधार पर बनी है। ऊपरी पर्वतीय क्षेत्र मे बने खेतों की बनावट ऐसी हो गयी है कि पानी बिना रुकावट के खेतों के उपर एक के बाद एक कई खेतों से होकर बह जाता है जिसके कारण भूक्षरण बढ़ता रहता है। धीरे-धीरे ऐसे खेतों का ढाल बहार की ओर अधिक हो गया है तथा भूमि संरक्षण की विधियाँ न अपनाने के कारण भूक्षरण की प्रक्रिया बढ़ती ही जा रही है तथा फसलोत्पादन कम हो रहा है।

ढालू सीढीदार खेतों की बनावट मे सुधार हेतु सबसे आसान तरीका है कि इन खेतों की लम्बाई के अनुरूप भीतरी भाग से मिट्टी काटकर बाहरी किनारों पर ढाल के अनुसार लगभग एक फुट ऊंची मेड़ बना दी जाये जिससे वर्षा का पानी खेत मे रूके तथा खेत की लम्बाई की तरफ से होकर बहे। ऐसा करने से वर्षा का पानी भूमि मे अधिक मात्रा मे सोखा जायेगा तथा धीरे- धीरे ऊपरी भाग से मिट्टी खेत स्वतः ही समतल हो जायेगा। यह विधि सस्ती व आसान है जिसे प्रत्येक किसान अपने खेत में कर सकता है।

भारत में मृदा संरक्षण की आवश्यकता

भारत में मृदा संरक्षण की बेहद जरूरत महसूस की जा रही है। विकास तेजी से हो रहा है। कल-कारखाने से लेकर स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र सभी खुल रहे हैं। खेती योग्य जमीन का रकबा लगातार कम हो रहा है तो दूसरी तरफ विभिन्न कारणों से मिट्टी का क्षरण भी हो रहा है।

वैज्ञानिकोें की अोर से दी गई विभिन्न सिफारिशों में मृदा संरक्षण पर जोर दिया गया है। यही वजह है कि केंद्र सरकार की अोर से कृषि विभाग के जरिए किसानों को मृदा संरक्षण के प्रति जागरूक किया जा रहा है। मृदा संरक्षण संबंधी अन्य अभियान भी चलाए जा रहे हैं। आज मृदा संरक्षण के प्रति तत्पर रहने की जिम्मेदारी हर किसान की है तभी ये अभियान सफल हो सकते हैं। कृषि वैज्ञानिक डा. एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में प्रतिवर्ष क्षरण के कारण करीब 25 लाख टन नाइट्रोजन, 33 लाख टन फास्फेट और 25 लाख टन पोटाश की क्षति होती है। यदि इस प्रभाव को बचा लिया जाए तो हर साल करीब छह हजार मिलियन टन मिट्टी की ऊपरी परत बचेगी और इससे हर साल करीब 5.53 मिलियन टन नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा भी बचेगी।

आंकड़े बताते हैं कि अनुकूल परिस्थितियों में मिट्टी की एक इंच मोटी परत जमने में करीब आठ सौ साल लगते हैं, जबकि एक इंच मिट्टी को उड़ाने में आंधी और पानी को चंद पल लगते हैं। एक हेक्टेयर भूमि की ऊपरी परत में नाइट्रोजन की मात्रा कम होने से किसान को औसतन तीन से पांच सौ रुपये खर्च करने पड़ते हैं।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रति वर्ष 27 अरब टन मिट्टी का क्षरण जलभराव, क्षारीकरण के कारण हो रहा है। मिट्टी की यह मात्रा एक करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि के बराबर है।

खेती योग्य जमीन के बीच काफी भू- भाग ऐसा है, जो लवणीय एवं क्षारीय है। इसका कुल क्षेत्रफल करीब सात मिलियन हेक्टेयर बताया जाता है। मिट्टी में सल्फेट एवं क्लोराइड के घुलनशील लवणों की अधिकता के कारण मिट्टी की उर्वरता खत्म हो जाती है।

कृषि में पानी के अधिक प्रयोग एवं जलजमाव के कारण मिट्टी उपजाऊ होने के बजाय लवणीय मिट्टी में परिवर्तित हो जाती है। वास्तव में मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों को बचाना बेहद जरूरी है क्योंकि मृदा की उर्वराशक्ति के क्षीण होने का नुकसान किसी न किसी रूप में समूचे राष्ट्र को चुकाना पड़ता है।

यदि फसलों की वृद्धि के लिए आवश्यक नाइट्रोजन, फास्फोरस, मैग्नीशियम, कैल्शियम, गंधक, पोटाश सहित अन्य तत्वों को बचाकर उनका समुचित उपयोग पौधे को ताकतवर बनाने में किया जाए तो एक तरफ हमारी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा और दूसरी तरफ मृदा संरक्षण की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण पहल होगी।

हालांकि केंद्र सरकार की अोर से भूमि सुधार कार्यक्रम, बंजर भूमि सुधार कार्यक्रम सहित कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। फिर भी आज दुनिया के सामने मरुस्थलीयकरण को रोकना भी एक बड़ी चुनौती है। हम मिट्टी की प्रवृत्ति पर गौर करें तो मिट्टी कुछ सेंटीमीटर गहरी होती है जबकि औसत रूप में कृषि योग्य उपजाऊ मिट्टी की गहराई 30 सेंटीमीटर तक मानी जाती है।

मृदा की चार परतें होती हैं। पहली अथवा सबसे ऊपरी सतह छोटे-छोटे मिट्टी के कणों और गले हुए पौधों और जीवों के अवशेष से बनी होती है। यह परत फसलों की पैदावार के लिए महत्वपूर्ण होती है। दूसरी परत महीन कणों जैसे चिकनी मिट्टी की होती है और तीसरी परत मूल विखंडित चट्टानी सामग्री और मिट्टी का मिश्रण होती है तथा चौथी परत में अविखंडित सख्त चट्टानें होती हैं।

लवणीयता व क्षारीयता कम करने की जरूरत

लवणीय मिट्टी में सोडियम और पोटैशियम कार्बोनेट की मात्रा अधिक होने के कारण पौधों की वृद्धि नहीं हो पाती है। ऐसे में पौधे या तो अविकसित ही रहते हैं अथवा वे सूख कर नष्ट हो जाते हैं। इसी तरह क्षारीय मिट्टी में पानी भरने पर काफी दिनों तक रूका रहता है और जब पानी सूखता है तो मिट्टी एकदम सख्त हो जाती है और बीच-बीच में दरारें दिखाई पड़ती हैं।

ऐसी मिट्टी में बोया जाने वाला बीज अंकुरित बहुत मुश्किल से होता है। क्षारीय भूमि को भी लवणीय भूमि की तरह निक्षालन क्रिया से शोधित किया जा सकता है। इसके अलावा जिप्सम का प्रयोग करके हानिकारक सोडियम तत्वों को नष्ट किया जा सकता है। इसके अलावा गोबर खाद, हरी खाद, वर्मी कंपोस्ट, नीलहरित शैवाल आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग करने के कारण कैल्शियम निचली सतह पर चला जाता है।

ऐसे में सोडियम भूमि की क्षारीय प्रकृति को बढ़ाकर मिट्टी की स्थिति को प्रभावित करता है। ऐसे में किसानोें को अनुमान के अनुरूप उत्पादन नहीं मिल पाता है।

मृदा संरक्षण के तहत उठाए जाने वाले अन्य प्रमुख उपाय हरी एवं जैविक खाद का प्रयोग- खेत में हरी खाद का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाए। परंपरागत रूप में प्रचलित सनई, ठैंचा, मूंग, लोबिया, ग्वार आदि को खेत में बोया जाए और खड़ी फसल के बीच खेत की जुताई की जाए। इससे खेत में विभिन्न प्रकार के जैविक तत्वों का समावेश होता है।

मिट्टी की ताकत बढ़ती है और उत्पादन भी अधिक मिलता है। क्योंकि इन फसलों की जड़, डंठल एवं पत्तियां सभी मिट्टी के संपर्क में आते ही पूरी तरह से सड़ जाते हैं और मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के साथ ही जिंक, आयरन, कॉपर, मैग्नीशियम आदि भी प्रदान करते हैं।

इस प्रणाली का प्रयोग सिंचित क्षेत्र में अधिक प्रचलित है। हालांकि हरी खाद के प्रयोग का चलन विभिन्न राज्यों में कम होता जा रहा है। यही वजह है कि अब एक बार फिर सरकारी स्तर पर किसानों को हरी खाद के प्रति जागरूक किया जा रहा है।

जैव उर्वरकों का प्रयोग करने से पौधों के लिए आवश्यक सभी प्रमुख एवं सूक्ष्म पोषक तत्व मिल जाते हैं। मिट्टी में मौजूद लाभकारी जीवाणुओं की बढ़त होती है। मिट्टी में पड़ने वाली रासायनिक खाद की घुलनशीलता बढ़ती है। भारत में मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, झारखंड में हरी खाद का प्रचलन है। इसी तरह मृदा संरक्षण की दिशा में जैविक खेती सबसे महत्वपूर्ण है। किसान जैविक खेती के जरिए जहां गुणवत्तापरक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं वहीं मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ा सकते हैं।

जैव उर्वरकों का प्रयोग करने से पौधों के लिए आवश्यक सभी प्रमुख एवं सूक्ष्म पोषक तत्व मिल जाते हैं। मिट्टी में मौजूद लाभकारी जीवाणुओं की बढ़त होती है। मिट्टी में पड़ने वाली रासायनिक खाद की घुलनशीलता बढ़ती है।

जैविक खेती की महत्ता को देखते हुए केंद्र एवं राज्य सरकारों की ओर से इसे विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए बढ़ावा दिया जा रहा है। इतना ही नहीं अब तो जैविक उत्पादन का मूल्य भी अन्य उत्पादों की अपेक्षा अधिक मिल रहा है। ऐसे में किसान जैविक खादों का प्रयोग कर दोहरा फायदा प्राप्त कर सकते हैं।

जैविक खेती में सक्रिय किसानों को जैविक खाद तैयार करने के लिए विभिन्न योजनाओं के जरिए अनुदान की भी व्यवस्था की गई है। जैव उर्वरकों का प्रयोग करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस वक्त जैव उर्वरक का प्रयोग हो रहा है, उस वक्त मिट्टी को कितनी जरूरत है। मुख्य रूप से राइजोबिनयम, एजोस्पीरिलम, नीलहरित शैवाल आदि का प्रयोग किया जा सकता है।

वर्मी कम्पोस्ट- यह प्राचीनकाल से ही किसानों का सबसे हितकर प्रयोग रहा है। क्योंकि यह पूरी तरह से केंचुए पर आधारित है। केंचुए को किसानों का मित्र कहा जाता है। लेकिन अब खेतों में केंचुआ पैदा करने के वैज्ञानिक तरीके भी उपलब्ध हैं।

ये केंचुए मिट्टी में मौजूद घासफूस और अन्य खरपतवार को खाकर उन्हें खाद तो बनाते ही हैं, साथ ही मिट्टी को मुलायम और उपजाऊ बना देते हैं। यही वजह है कि अब केंचुए तैयार करने के लिए सरकारी स्तर पर भी उपक्रम स्थापित किए जा रहे हैं। कृषि वैज्ञानिक गांव-गांव जाकर किसानों को वर्मी कंपोस्ट के प्रति जागरूक कर रहे हैं।

फसल चक्र- खेत में उचित फसल चक्र अपनाया जाए। क्योंकि कई बार खेत में जिस खाद का प्रयोग किया जाता है वह संबंधित फसल के तहत पौधा ग्रहण नहीं कर पाता है। किसी एक खेत में अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग फसलों को हेर-फेर करके उगाया जाए तो मृदा की उर्वरता बरकरार रहती है।

इससे किसी एक प्रकार के खरपतवार, बीमारी और कीड़ों को बढ़ावा भी नहीं मिलता है।